सनातन परंपरा में जीवन को एक अव्यवस्थित संयोग नहीं माना गया, बल्कि एक सार्थक यात्रा के रूप में देखा गया—ऐसी यात्रा जिसमें जन्म से मृत्यु तक प्रत्येक चरण, प्रत्येक भूमिका और प्रत्येक आकांक्षा को अर्थ और दिशा दी गई। वर्णाश्रम धर्म और चतुष्टय पुरुषार्थ इसी जीवन-दृष्टि की दो मजबूत धुरियाँ हैं, जिन पर पूरी जीवन-व्यवस्था संतुलित रहती है। वर्णाश्रम धर्म को यदि केवल सामाजिक वर्गीकरण के रूप में देखा जाए, तो उसका आत्मिक मर्म खो जाता है। वस्तुतः यह व्यवस्था कार्य, गुण और जीवन-चरण के आधार पर मनुष्य की भूमिका को समझने का प्रयास है—न कि जन्म के आधार पर किसी को ऊँचा या नीचा ठहराने का विधान। इसका मूल उद्देश्य था: समाज का संतुलन और व्यक्ति का आत्मविकास।

वर्ण का अर्थ था—व्यक्ति की प्रवृत्ति और योग्यता। कोई ज्ञान की साधना में रमण करता है, कोई संरक्षण और नेतृत्व में, कोई उत्पादन और व्यापार में, तो कोई सेवा और कौशल में। समाज तभी स्वस्थ रहता है, जब ये सभी कार्य सम्मान के साथ, परस्पर सहयोग में संपन्न हों। वर्णाश्रम का आदर्श यह नहीं था कि कोई एक सर्वोच्च हो, बल्कि यह कि हर भूमिका आवश्यक हो। आश्रम व्यवस्था इस सामाजिक संतुलन को जीवन की समय-रेखा पर स्थापित करती है। मनुष्य को एक साथ सब कुछ बनने की अपेक्षा नहीं रखी गई। पहले सीखना, फिर निभाना, फिर छोड़ना—जीवन को यह क्रम देना ही आश्रम व्यवस्था का सौंदर्य है।
ब्रह्मचर्य आश्रम में जिज्ञासा का दीप जलता है। यह वह काल है जहाँ मनुष्य अपने भीतर प्रश्नों की खेती करता है—मैं कौन हूँ, मुझे क्या जानना चाहिए, और मुझे किस प्रकार जीना है। यहाँ संयम दमन नहीं, तैयारी है। गृहस्थ आश्रम जीवन का केंद्र है। यहाँ व्यक्ति केवल अपने लिए नहीं, बल्कि परिवार, समाज और परंपरा के लिए जीता है। यह आश्रम सिखाता है कि आध्यात्मिकता पलायन नहीं, उत्तरदायित्व है। गृहस्थ ही अर्थ का सृजन करता है, समाज का पालन करता है और संस्कृति को आगे बढ़ाता है। वानप्रस्थ आश्रम जीवन की उस संधि का नाम है, जहाँ व्यक्ति धीरे-धीरे आसक्ति से मुक्त होता है। यह अचानक त्याग नहीं, बल्कि सहज दूरी है—जैसे पत्ते का पेड़ से अलग होना। यहाँ अनुभव ज्ञान बनता है।संन्यास आश्रम जीवन की पूर्णता है। यह संसार से भागना नहीं, बल्कि संसार के बंधनों से मुक्त होकर भी करुणा में स्थिर रहना है। संन्यासी समाज का त्यागी नहीं, उसका मार्गदर्शक होता है।
इन चार आश्रमों के समानांतर चलती है जीवन की चार आकांक्षाएँ—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। यही चतुष्टय पुरुषार्थ जीवन को एकांगी होने से बचाते हैं। धर्म यहाँ आचार है—नैतिक धुरी। यह बताता है कि क्या उचित है, क्या संतुलित है, और क्या लोकमंगलकारी है। धर्म बिना अर्थ के खोखला है, और अर्थ बिना धर्म के विनाशकारी। अर्थ जीवन की आवश्यकता है। सनातन परंपरा यह स्वीकार करती है कि जीवन केवल साधना से नहीं चलता। पर वह यह भी सिखाती है कि अर्थ साध्य नहीं, साधन है—और साधन पर नियंत्रण आवश्यक है। काम जीवन की रसधारा है। प्रेम, सौंदर्य, कला, संगीत, स्नेह—ये सब काम के ही रूप हैं। सनातन दृष्टि में काम पाप नहीं, यदि वह धर्म के अनुशासन में हो। जीवन से आनंद हटाकर मोक्ष की कल्पना अधूरी है। मोक्ष जीवन का निषेध नहीं, उसकी परिपक्वता है। यह संसार से विमुख होना नहीं, बल्कि आसक्ति से मुक्त होकर संसार में रहना है। मोक्ष कोई मृत्यु-पश्चात पुरस्कार नहीं, बल्कि चेतना की अवस्था है।
वर्णाश्रम और पुरुषार्थ—ये दोनों मिलकर जीवन को संतुलन सिखाते हैं। न केवल आध्यात्मिकता, न केवल भोग; न केवल समाज, न केवल आत्मा। यहाँ हर अतिशय का उपचार है। इस व्यवस्था का सौंदर्य इसकी लचीलापन में है। यह किसी एक समय, समाज या परिस्थिति में जड़ नहीं रही। जैसे-जैसे समाज बदला, इसकी व्याख्याएँ बदलीं। जहाँ कठोरता आई, वहाँ विकृति आई—दर्शन नहीं। आज जब इस व्यवस्था को समझा जाता है, तो यह आवश्यक है कि हम उसके आदर्श को देखें, न कि उसके ऐतिहासिक दुरुपयोग को। वर्ण का अर्थ जन्म से नहीं, गुण से है; आश्रम का अर्थ बंधन नहीं, क्रम है; और पुरुषार्थ का अर्थ संघर्ष नहीं, समन्वय है।
सनातन जीवन-व्यवस्था का अंतिम संदेश सरल है—
जीवन को जानो,
जीवन को जियो,
और जीवन से मुक्त भी रहो।
यह व्यवस्था मनुष्य को छोटा नहीं करती, उसे उत्तरदायी बनाती है। यह समाज को बाँटती नहीं, जोड़ने का प्रयास करती है। और यह ईश्वर को दूर नहीं रखती—उसे जीवन के हर कर्म में उपस्थित मानती है।
अंततः, वर्णाश्रम धर्म और चतुष्टय पुरुषार्थ कोई सामाजिक ढाँचा भर नहीं, बल्कि जीवन को अर्थ, मर्यादा और करुणा के साथ जीने की शाश्वत कला है—जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी अपने आदर्श रूप में कभी थी।


Leave a Reply