धर्म को जब भी केवल रिलिजन, दीन या मज़हब के अर्थ में समझ लिया जाता है, तब उसके वास्तविक अर्थ की आत्मा कहीं पीछे छूट जाती है। क्योंकि धर्म कोई सीमाबद्ध पहचान नहीं है, न ही वह किसी समुदाय का स्वामित्व है। धर्म मनुष्य के भीतर जन्म लेने वाली वह चेतना है, जो उसे यह सिखाती है कि कैसे जीना है, न कि केवल क्या मानना है। धर्म विश्वास से पहले आचरण है। यह किसी ईश्वर के नाम पर किए गए कर्मों का संग्रह नहीं, बल्कि वह सहज बोध है जो मनुष्य को सही और गलत के बीच अंतर करना सिखाता है—चाहे वह किसी भी भाषा, संस्कृति या आस्था में जन्मा हो। धर्म आदेश नहीं देता, वह अंतरात्मा को जगाता है। संस्कृत में धर्म का मूल अर्थ है—“धारण करने वाला”। जो समाज को धारण करे, जीवन को संतुलन दे, और मनुष्य को मनुष्य बनाए रखे—वही धर्म है। यदि कोई विचार, परंपरा या व्यवस्था जीवन को तोड़ती है, भय और घृणा फैलाती है, तो वह धर्म नहीं हो सकती—चाहे वह कितनी ही पवित्र क्यों न कही जाए।

धर्म का संबंध बाहरी पहचान से नहीं, भीतरी उत्तरदायित्व से है। कोई व्यक्ति मंदिर जाए या न जाए, मस्जिद में झुके या न झुके, चर्च में प्रार्थना करे या न करे—यह धर्म का मापदंड नहीं। धर्म वहाँ प्रकट होता है जहाँ मनुष्य अन्याय के सामने चुप नहीं रहता, जहाँ शक्ति का उपयोग सेवा के लिए होता है, और जहाँ स्वार्थ करुणा के आगे झुक जाता है। धर्म भय से नहीं जन्म लेता। वह दंड के डर से नैतिक बनने की माँग नहीं करता। वह कहता है—यदि तुम सही इसलिए करते हो क्योंकि कोई देख रहा है, तो वह नैतिकता नहीं, अवसरवाद है। सच्चा धर्म वह है जो अकेले में भी तुम्हारे हाथों को हिंसा से, और तुम्हारे शब्दों को असत्य से रोक दे।
धर्म का सबसे सुंदर रूप करुणा है। करुणा किसी ग्रंथ का आदेश नहीं, बल्कि पीड़ा को महसूस करने की क्षमता है। जहाँ मनुष्य दूसरे के दुःख को अपना समझने लगता है, वहीं धर्म का जन्म होता है। यही कारण है कि धर्म किसी एक संस्कृति तक सीमित नहीं—वह हर उस हृदय में उपस्थित है जहाँ संवेदना जीवित है। धर्म नियमों का ढेर नहीं, विवेक की ज्योति है। नियम समय के साथ बदलते हैं, लेकिन विवेक सदा प्रासंगिक रहता है। धर्म मनुष्य को यह स्वतंत्रता देता है कि वह परिस्थितियों को समझकर सही निर्णय ले—न कि आँख मूँदकर परंपरा का अनुसरण करे।
धर्म का संबंध सत्य से है, लेकिन सत्य को थोपने से नहीं। सत्य को खोजने से है। जहाँ प्रश्न पूछने की स्वतंत्रता है, वहीं धर्म जीवित रहता है। जहाँ प्रश्न दबा दिए जाते हैं, वहाँ धर्म मर जाता है और केवल पाखंड बचता है। धर्म अधिकारों की नहीं, कर्तव्यों की भाषा बोलता है। जब मनुष्य केवल अपने अधिकारों की सूची बनाता है, तो समाज टूटता है। जब वह अपने कर्तव्यों को समझता है, तो अधिकार अपने आप सुरक्षित हो जाते हैं। धर्म हमें यह स्मरण कराता है कि हम केवल लेने के लिए नहीं, देने के लिए भी जन्मे हैं। धर्म सत्ता का उपकरण नहीं है। जब धर्म सत्ता के साथ गठजोड़ करता है, तो वह अपनी आत्मा खो देता है। सच्चा धर्म सत्ता से प्रश्न करता है, उसे सीमित करता है, और उसे सेवा की याद दिलाता है। यही कारण है कि इतिहास में धर्म हमेशा शासकों के लिए असुविधाजनक रहा है।
धर्म बाहरी शुद्धता से अधिक आंतरिक शुद्धता पर बल देता है। हाथ धो लेना सरल है, मन धोना कठिन। कपड़े बदल लेना आसान है, विचार बदलना कठिन। धर्म इसी कठिन यात्रा का नाम है—अहंकार से विनम्रता तक, घृणा से प्रेम तक।धर्म व्यक्ति को छोटा नहीं करता, उसे उत्तरदायी बनाता है। वह यह नहीं कहता कि तुम तुच्छ हो, वह कहता है कि तुम सक्षम हो—अपने कर्मों के लिए, अपने प्रभाव के लिए, और अपने चुनावों के लिए। धर्म किसी स्वर्ग का लालच नहीं देता, न किसी नरक का भय। वह कहता है—यदि तुम्हारा जीवन न्यायपूर्ण, करुणामय और सत्यनिष्ठ है, तो वही तुम्हारा स्वर्ग है। और यदि नहीं, तो कोई भी अनुष्ठान तुम्हें नहीं बचा सकता। धर्म समय के साथ नहीं लड़ता, वह समय को दिशा देता है। विज्ञान, आधुनिकता, लोकतंत्र—ये धर्म के शत्रु नहीं, बल्कि उसके नए संदर्भ हैं। यदि धर्म मानव गरिमा के पक्ष में है, तो वह हर युग में प्रासंगिक रहेगा।
आज जब दुनिया मज़हबों के नाम पर बँट रही है, तब धर्म को उसके मूल अर्थ में लौटाना और भी आवश्यक हो गया है। धर्म को पहचान नहीं, पथ बनाना होगा। धर्म को दीवार नहीं, पुल बनाना होगा।
अंततः, धर्म कोई लेबल नहीं जिसे पहना जाए, बल्कि वह चेतना है जिसे जिया जाए।
वह शब्द नहीं, अनुभव है।
वह घोषणा नहीं, आचरण है।
और जब धर्म इस रूप में जीवित होता है, तब मनुष्य केवल आस्थावान नहीं रहता—वह मानव बनता है।


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