सनातन धर्म—व्यक्ति, समाज एवं प्रकृति के संतुलन का शाश्वत दर्शन।


सनातन धर्म को समझने के लिए सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि वह किसी एक पुस्तक, किसी एक पैग़म्बर, किसी एक समय या किसी एक परंपरा में सीमित नहीं है। वह कोई संहिताबद्ध आदेश-पुस्तिका नहीं, बल्कि जीवन की सतत धारा है—ऐसी धारा जो समय के साथ बहती नहीं, बल्कि समय को अपने भीतर बहने देती है। यही कारण है कि सनातन धर्म को “धर्म” से अधिक “जीवन-प्रणाली” कहा गया है। सनातन शब्द का अर्थ ही है—शाश्वत। जो न जन्म लेता है, न नष्ट होता है। यह शाश्वतता किसी सत्ता का दावा नहीं, बल्कि सत्य की स्वीकृति है। सनातन धर्म यह नहीं कहता कि सत्य केवल यहीं है; वह कहता है कि सत्य हर उस जगह है जहाँ जीवन है, चेतना है और विवेक है। इसलिए यह धर्म थोपता नहीं, स्वीकार करता है; बाँधता नहीं, मुक्त करता है।

Sanatan-Dharma-Darshan
Sanatan-Dharma-Darshan

सनातन धर्म मनुष्य को बाहर किसी ईश्वर की खोज में नहीं भटकाता, बल्कि भीतर उतरने का साहस देता है। वह आत्मा को प्रश्न पूछने की अनुमति देता है—मैं कौन हूँ, क्यों हूँ, और कैसे जीऊँ? यहाँ उत्तर पहले से तय नहीं होते, बल्कि साधना और अनुभव से प्रकट होते हैं। यही कारण है कि सनातन परंपरा में दर्शन अनेक हैं, मार्ग अनेक हैं, लेकिन लक्ष्य एक है—आत्मबोध। इस जीवन-प्रणाली की पूर्णता उसके संतुलन में निहित है। सनातन धर्म जीवन को केवल त्याग या केवल भोग में नहीं बाँटता। वह कहता है कि मनुष्य न तो केवल सांसारिक है और न केवल आध्यात्मिक। वह दोनों का संगम है। इसी संतुलन को चार पुरुषार्थों—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है।

धर्म यहाँ पूजा-पाठ या कर्मकांड नहीं, बल्कि कर्तव्य, नैतिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व का नाम है। धर्म वह शक्ति है जो व्यक्ति को स्वार्थ से ऊपर उठाकर समाज से जोड़ती है। यह डर से नहीं चलता, विवेक से चलता है। सनातन दृष्टि में वही धर्म है जो जीवन को धारण करे, न कि उसे बोझिल बनाए। अर्थ को सनातन धर्म पाप नहीं मानता। वह जानता है कि जीवन केवल ध्यान से नहीं चलता, श्रम और संसाधन भी आवश्यक हैं। पर वह अर्थ को निरंकुश नहीं छोड़ता; उसे धर्म के अधीन रखता है। धन साधन है, साध्य नहीं। इसी में आर्थिक नैतिकता का मूल छिपा है। काम—जिसे अक्सर संकीर्ण अर्थों में देखा जाता है—सनातन परंपरा में सृजन, प्रेम और सौंदर्य की ऊर्जा है। जीवन से आनंद को हटाकर मोक्ष संभव नहीं। लेकिन यह आनंद मर्यादा और उत्तरदायित्व के साथ हो—यही सनातन बोध है। और अंततः मोक्ष—जो मृत्यु के बाद मिलने वाला पुरस्कार नहीं, बल्कि जीवन में प्राप्त होने वाला बोध है। मोक्ष का अर्थ संसार से भागना नहीं, बल्कि संसार में रहते हुए आसक्ति से मुक्त होना है। यही कारण है कि सनातन संत गुफाओं में नहीं, समाज के बीच दिखाई देते हैं।

सनातन धर्म की जीवन-प्रणाली आश्रम व्यवस्था में भी प्रकट होती है। जीवन को एक साथ सब कुछ नहीं बनना पड़ता। पहले सीखना, फिर कमाना, फिर देना और अंत में छोड़ना—यह क्रम जीवन को सहज और संतुलित बनाता है। यहाँ उम्र के साथ भूमिका बदलती है, लेकिन गरिमा नहीं। नैतिकता का आधार यहाँ भय नहीं, कर्म है। कर्म सिद्धांत मनुष्य को यह बोध कराता है कि कोई बाहर बैठा न्याय नहीं कर रहा—तुम स्वयं अपने कर्मों से अपना भविष्य गढ़ रहे हो। यह स्वतंत्रता भी है और उत्तरदायित्व भी। अहिंसा सनातन धर्म की आत्मा है। लेकिन यह केवल शारीरिक हिंसा तक सीमित नहीं। विचार, वाणी और भाव—तीनों का शुद्ध होना आवश्यक है। यहाँ क्रोध को दबाया नहीं जाता, समझा जाता है; हिंसा को नकारा नहीं जाता, रूपांतरित किया जाता है।

परिवार सनातन जीवन-प्रणाली की आधारशिला है। माता-पिता, गुरु और अतिथि को देवतुल्य मानने का अर्थ यह नहीं कि वे त्रुटिहीन हैं, बल्कि यह कि संबंधों में कृतज्ञता और सम्मान बना रहे। समाज अधिकारों से नहीं, कर्तव्यों से मजबूत होता है—यह सनातन सूत्र है। स्त्री को सनातन दृष्टि में शक्ति माना गया है। सृजन की शक्ति, करुणा की शक्ति और परिवर्तन की शक्ति। जहाँ स्त्री का सम्मान है, वहाँ समाज जीवित है—यह केवल कथन नहीं, अनुभव है। राजनीति भी सनातन जीवन-प्रणाली से अछूती नहीं। राजधर्म का अर्थ है—सत्ता सेवा है, स्वामित्व नहीं। शासक भी धर्म के अधीन है, और अन्याय करने पर उसका नैतिक अधिकार समाप्त हो जाता है। यह विचार सत्ता को निरंकुश होने से रोकता है। सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता उसकी बौद्धिक स्वतंत्रता है। यहाँ प्रश्न पूछना विद्रोह नहीं, साधना है। नास्तिक भी संवाद का हिस्सा है, संशय भी स्वीकार्य है। “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति”—यह केवल सहिष्णुता नहीं, बल्कि सत्य की गहराई की स्वीकृति है।

प्रकृति के साथ संबंध भी सनातन जीवन-प्रणाली का अभिन्न अंग है। पृथ्वी माता है, जल जीवन है, वायु प्राण है। यहाँ प्रकृति का दोहन नहीं, संरक्षण है। यह दृष्टि आज के पर्यावरण संकट में और भी प्रासंगिक हो जाती है। पूजा सनातन धर्म में भय से नहीं, कृतज्ञता से जन्म लेती है। मूर्ति यहाँ अंतिम सत्य नहीं, बल्कि मन को एकाग्र करने का माध्यम है। बाहरी पूजा का उद्देश्य भीतर की यात्रा है। इस प्रकार सनातन धर्म किसी पर शासन करने की आकांक्षा नहीं रखता। वह साम्राज्य नहीं बनाता, सभ्यता गढ़ता है। वह लोगों को जोड़ता है, नियंत्रित नहीं करता। इसी कारण वह सहस्राब्दियों से जीवित है—क्योंकि वह बदला नहीं, बल्कि हर बदलाव को अपने भीतर समाहित करता गया।

अंततः, सनातन धर्म को पूर्ण जीवन-प्रणाली के रूप में समझने का अर्थ है यह स्वीकार करना कि जीवन केवल नियमों से नहीं, संतुलन से चलता है; केवल विश्वास से नहीं, विवेक से चलता है; और केवल लक्ष्य से नहीं, यात्रा से अर्थ पाता है।

सनातन धर्म कोई आदेश नहीं देता—वह आमंत्रण देता है।
जीवन को जानने का,
स्वयं को समझने का,
और मानव होने की कला सीखने का।

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